Friday 25 September 2015

गणपती बप्पा मोरिया


अब इसे अच्छा तो कोई दूजा नाम हो नहीं सकती था इस पोस्ट का! नहीं? पाँच महीने बाद जब ब्लॉग पर वापसी हो तब शुरुआत तो शुभ होनी ही चाहिए। यूं भी इन दिनों यहाँ गणपती का ज़ोर है। लेकिन पांचवे दिन के बाद अब कई जगहों से विसर्जन हो चला है। जहां तक माहौल की बात है। कई दिन पहले से माहौल खुश नुमा हो जाता है। जगह जगह लोग आगमन और विसर्जन पर बजने वाले ढ़ोल के लिए प्रयास करते नज़र आते है। अच्छे अच्छे परिवारों से लड़के एवं लड़कियां उसमें भाग लेते है। बहुत ही हर्षोल्लास का मौसम रहता है। बप्पा के आगमन से ही वातावरण में एक सकरात्मक ऊर्जा सी महसूस होने लगती है। वैसे तो उन्हें अतीत के रूप में पूजा जाता है मगर इन दस दिनों में वह कब हमारे घर के सदस्य बन जाते है हमें ही पता नहीं चल पाता उनकी आरती से ही सुबह और उनकी आरती से ही शाम ढला करती है। सच में उनके जाने के बाद सब कुछ बड़ा सूना सूना सा लगने लगता है। हमारी सोसाइटी में भी पाँच दिन के लिए गणपती की स्थापना की गयी थी और पाँच दिनों के बाद विसर्जन भी हो गया। तब से बड़ा सूना सूना लग रहा है।

लेकिन क्या कर सकते है सिवाए इस प्रार्थना के कि 'गणपती बप्पा मौरिया अगले बरस तू जल्दी आ'। धार्मिक माहौल और हर्षोल्लास की बात तक तो ठीक है। लेकिन विसर्जन के नाम पर जो गंदगी समुद्र, नदियों और तालाबों में जो देखने को मिलती है। उसे मन दुखी हो जाता है। वह सब देखकर तो मन में यही विचार आता है कि विसर्जन करना क्या इतना ज़रूरी है? और यदि है भी तो तो फिर बड़ी बड़ी प्रतिमाओं पर प्रतिबंध क्यूँ नहीं लगाया जाता। इस बार भी तो फिर भी यह सुनने और पढ़ने में आया कि इस साल प्लास्टरऑफपेरिस की जगह मिट्टी की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया है। अब इसमें कितना सच कितना झूठ यह तो ईश्वर ही जाने। लेकिन इस विषय में हर इंसान मानवता और प्रकृति का ध्यान रखते हुए अपनी-अपनी धार्मिक भावनाओं पर थोड़ा सा संतुलन बरत ले तो कितना अच्छा हो। जैसे हर सोसाइटी में जो गणपती जी की झांकी लगाई जाती है। वहाँ के सभी सदस्य अपने अपने घरों में अलग से गणपती न लाकर वहीं समग्र रूप से पूजा अर्चना किया करें। तो हो सकता है कुछ हद तक मूतियों की भरमार से होने वाले प्रदूषण में शायद कुछ प्रतिशत तक कमी आ जाए।



मेरे विचार से तो हर दुकान में इस बात का सही तरीके से निरक्षण परीक्षण होना चाहिए कि बनाई गयी सभी छोटी बड़ी प्रतिमायें मिट्टी की ही हो। ताकि विसर्जन के बाद पानी में पूर्ण रूप से घुल जाए। और उस ईश्वर का निरादर न हो। जिसे हमने दिन रात अपने घर के सदस्य की तरह पूजा और फिर किसी खिलौने के भांति विसर्जन के नाम पर बस पानी में छोड़ आए। फिर वहाँ चाहे उनकी कैसी भी दुर्गति हो रही हो उसे हमें कोई मतलब ही नहीं होता। मगर अफसोस कि ऐसा एक बार नहीं बल्कि बार-बार होता है। अभी गणपती अपने गाँव चले। तो उनकी मैया आने वाली है। हम मूर्ति पूजक तो उस जगत जननी की प्रतिमाओं के साथ भी वही व्यवहार करते है, जो हमने उनके लाल की प्रतिमाओं के साथ किया।

यह सही नहीं है। या तो हमें मूर्ति पूजा ही बंद कर देनी चाहिए। या फिर सरकार को इस प्रथा के लिए कोई कडा कदम उठाना चाहिए। धार्मिक भावनाए अलग बात है। लेकिन अपने आस पास के माहौल के बारे में सोचना भी हमारा ही तो धर्म है। उस वक्त यह सोचना कि और धर्मों के लोग जब अपने अपने त्यौहारों पर समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं दिखाते, तो हम क्यूँ करें। यह गलत है। अगर सभी ऐसा सोचने लगे तो फिर सबमें और हममें अंतर ही क्या रह जाएगा। ऐसा नहीं है कि स्वयं हिन्दू धर्म के होने बावजूद मुझे हिंदुओं की इस तरह की प्रथाओं से समस्या है। मैं भी आप सभी में से एक हूँ और मैंने भी अपने घर में अलग से बप्पा की स्थापना की है लेकिन बाद में जब विचार किया तो यह सब समझ में आया। मुझे तो ईद के नाम पर जानवरों को काटे जाने या बली देने पर भी ऐतराज है। मासूम और बेगुनाह जानवरों की बली देकर स्वयं उन्हें बनाने वाला इस सब से कैसे प्रसन्न हो सकता है यह बात मेरी समझ के बाहर है। मगर दक़ियानूसी परम्पराओं में लिपटा हमारा समाज और हम इतनी आसानी से इन कुप्रथाओं से मुक्ति नहीं पा सकते।

हमें इससे छुटकारा दिलाने के लिए या तो स्वयं ईश्वर को इस धरती पर आना होगा। या फिर कोई ऐसे बंदे का निर्माण करना होगा जो लोगों में इस विषय के प्रति जागृति ला सके। लोगों की आँखें खोल सके। तभी कुछ हो सकता है। वैसे नयी पीढ़ी बदल रही है। परिवर्तन की हल्की सी एक उम्मीद तो है। मगर दुजी ओर हमारी परम्पराओं और संस्कृति के खो जाने का भय भी है। क्यूंकि समय के अभाव के चलते कई घरों में अब दोनों समय की पूजा अर्चना ही बंद हो गयी है। फिर इस तरह के त्यौहार और महौत्सव की कामना या शायद कल्पना करना भी व्यर्थ ही है। अब लोग प्रकटिकल हो गए है। जिसे देखो बे प्रेक्टिकल कहता हुआ ही दिखाई पड़ता है। भावनात्मक कहलाने में लोगों को शर्म महसूस होती है। अब इसे हालातों में भला कहाँ और कब तक चलेगी यह प्रथाएँ यह परम्पराएँ। बाकी तो भविष्य किसने देखा है। मेरी तो सभी लोगों से हाथ जोड़कर यही विनती है कि त्यौहार कोई भी हो प्रकृति को न भूलें,  शांति और सद्भावना से मनायें ना आपको कोई कष्ट हो न दूजे कोई हानि हो।

जय गणेश॥