Thursday 28 January 2016

बदलाव (परिवर्तन)


कहते है परिवर्तन ही जीवन का आधार है। जो समय के साथ बदल जाये वही व्यक्ति सफल कहलाता है। लेकिन मेरी सोच और समझ यह कहती है कि “परिस्थिति के आधार पर समग्ररूप से मानवता का जो कल्याण करने में सक्षम हो या फिर जिसमें मानवता के कल्याण की भावना निहित हो, सही मायने में वही सच्चा बदलाव है”।
मेरे विचार से तो बदलाव की यही सही परिभाषा है। लेकिन फिर दूसरी ओर यह विचार भी मन में आता है कि जिस तरह सही और गलत कुछ नहीं होता केवल व्यक्तिगत दृष्टिकोण की बात ही होती है। ठीक उसी तरह `बदलाव` का अर्थ भी विभिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न स्थान रखता है। जैसे किसी को अपने निजी जीवन में बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है, तो किसी को सामूहिक तौर पर किसी बड़े बदलाव की आशा होती है। किसी को छोटे-छोटे बदलाव भी बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग अचानक आए बदलावों को संभाल ही नहीं पाते और अपने आप में बड़ा असहज महसूस करने लगते है। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर बदलाव की परिभाषा बदलती रहती है। लेकिन उपरोक्त कथन में दी गयी बदलाव की परिभाषा के आधार पर यदि वर्तमान हालातों को मद्देनजर रखते हुए सोचा जाये, तो जनकल्याण और मानवता की बात तो दूर, आजकल तो लोगों ने बदलाव को अधिकारों से जोड़कर देखना परखना प्रारम्भ कर दिया है। जो सही नहीं है।
विषय चाहे कोई भी हो उसे सर्व प्रथम इंसानियत की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। लेकिन उसे स्त्री और पुरुष के दृष्टिकोण से देखना प्रारम्भ कर दिया जाता है। फिर चाहे बात देश, धर्म कानून की ही क्यूँ न हो या फिर अन्य कोई भी मामला हो, बात अधिकारों में आकर उलझ जाती है। मैं मानती हूँ कि पुरुष प्रधान समाज होने के कारण स्त्रियॉं के अधिकारों का हनन होता आया है, इसमें कोई दो राय नहीं है। अपने अधिकारों के लिए लड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। इसलिए शायद जब में बदलाव की बात करती हूँ तो मेरे मन में भी सबसे पहले एक स्त्री की छवि ही उबरती है। (स्त्री) जिसको लेकर आए दिन कोई न कोई बवाल मचा रहता है। हर रोज़ कोई नया विवाद जन्म लेता है। लेकिन फिर भी मैं यह कहना चाहती हूँ की ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं आया है। लेकिन फिर भी कुछ लोगों को लगता है कि यह तो केवल शुरुआत है। जो हुआ है, उसे बदलाव इसलिए नहीं कहा जा सकता क्यूंकि अभी उसका स्वरूप बहुत छोटा है या सीमित है। जब तक समग्र रूप से या सार्व्भोमिक रूप से परिवर्तन नहीं आ जाता तब तक वह परिवर्तन नहीं कहलाता। अब भला यह भी कोई बात हुई !
अब और कुछ नहीं तो शिंगनापुर के शनि मंदिर की बात ही ले लो। इस मामले में मैं तो यह मानती हूँ की जहां सम्मान पूर्वक प्रवेश न मिले वहाँ जाना व्यर्थ है फिर चाहे वह ईश्वर का दरबार ही क्यूँ न हो। आज महिलाएं वहाँ प्रवेश को लेकर अपने अधिकारों का प्रदर्शन कर रही है। एक तरह से सही है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है किसी तरह लड़ झगड़कर उनको वहाँ प्रवेश मिल भी जाता है तो क्या ? ऐसा क्या है जो उन्हें हांसिल हो जाएगा। जो उन्हें अब तक हांसिल नहीं हो पाया है। क्या ऐसे प्रवेश पा लेने से भगवान जी उनको औरों से ज्यादा आशीर्वाद दे देंगे। या फिर उनकी उपस्थिती को अलग से किसी पन्ने पर लिख लेंगे। ऐसा तो कुछ होना नहीं है फिर ऐसा अधिकार मिले न मिले क्या फर्क पड़ता है। ऐसी ही विचारधारा रखने वाले चंद मुट्ठी भर लोग नित नए बदलावाओं से महज़ इसलिए परेशान है क्यूंकि उन्हें लगता है कि यह तेज़ी से आ रहे परिवर्तन ही उन्हें पतन की और लेजा रहे है। यह सब देखते हुए लगता है आज हर कोई स्वार्थी है। यहाँ बदलाव की जरूरत है। आज देश जिन हालातों से गुज़र रहा है वहाँ एकल रूप से सोचने के बजाए समग्र रूप से सोचकर साथ चलने की जरूरत है। आतंकवाद बढ़ रहा है, भूख, गरीबी, चिकित्सा का आभाव, बेरोजगारी, नशा, महंगाई, जहां देखो, जो देखो तेज़ी से बढ़ रहा है। शिक्षा का स्तर गिर रहा है, किसान मर रहा है, बच्चे जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो गए है, व्यक्ति का परस्पर संवाद खत्म हो रहा है। इससे अधिक और क्या गंभीर कारण हो सकते है जो एक देश के नागरिक को उस देश के विषय में सोचने के लिए मजबूर कर सकें।
इसके बावजूद भी इतने स्वार्थी हो गए हैं हम कि हमें अब भी यही लगता है कि विदेशों में जीवन आसान है सुरक्षित है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। जहां एक बच्चे की मात्र स्पेलिंग मिस्टेक से उसके घर पुलिस चली जाये और उसके माता पिता से सौ तरह के सावल किये जाये। इससे ज्यादा असुरक्षित होने का और क्या प्रमाण चाहिए लोगों को, बावजूद इसके लोगों को यही लगता है कि बाहर रहने में ही समझदारी है। तो उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। हालांकि यह बात अलग है कि विदेशों में आबादी कम होने की वजह से समस्या पर काबू पाना यहाँ भारत की तुलना में थोड़ा आसान होता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहाँ समस्याएं ही नहीं होती। या उन लोगों को आतंकवाद से डर नहीं लगता। बल्कि उन्हें हमसे ज्यादा डर लगता है। इसलिए आए दिन वीसा के नियम कानून बदलते रहते है।     

खैर वह एक अलग मुद्दा है। लेकिन हमारा क्या हम तो हर बार अपनी गलतियाँ दौहराते है। चंद राजनैतिक दलों के बहकावे में आकर हर बार आपस में ही लड़ भिड़कर अहम मुद्दे से अपनी नज़र हटा लेते हैं। जबकि सच्चाई यही है कि किसी भी गंभीर मुद्दे को लेकर यदि हम लोगों की सोच में परिवर्तन लाना चाहते है या उन में एक क्रान्ति जगाना चाहते है तो सबसे पहले हमें उस मुद्दे को स्त्री और पुरुष के तराजू से बाहर निकालकर एक इंसान के हित के नजरिये से देखना होगा और फिर उस पर काम करना होगा तभी इस देश इस समाज में परिवर्तन संभव है अन्यथा नहीं क्यूंकि न जाने कौन से बदलाव की तलाश है हमें जिसकी तृष्णा में इतने अंधे हो चुके हैं हम कि आज अपनी जड़े ही हमें अपने पैरों की बेड़ियाँ महसूस होने लगी है। अपनी ही परंपरा और संस्कृति को आज हम स्वयं ही रूढ़िवादी सोच करार देते हैं। अपने ही धर्म का हम स्वयं मज़ाक बना देते है और कहते है हिन्दूत्व कोई धर्म नहीं यह तो केवल एक जीवन शैली है जिसमें किसी तरह का कोई निश्चित नियम कानून नहीं है। जैसा की अन्य धर्मों में होता है। बात धर्म की हो तो उससे पहले अधिकार आ जाता है और अधिकारों के हनन पर बहस छिड़ जाती है और धर्म का मुद्दा ही बदल जाता है। धर्म तो कहीं दूर बहुत दूर ही पीछे ही छूट जाता है और सुई घूमकर वापस वहीं आ जाती है कि इस देश में बदलाव की सख्त आवश्यकता है जब तक यहाँ रह रहे लोगों की सोच नहीं बदल जाती तब तक इस देश का कुछ हो ही नहीं सकता है। वाह रे बदलाव